लोकतंत्र में सवाल पूछना सिर्फ़ एक अधिकार नहीं, बल्कि उसकी रीढ़ है। लेकिन भारत में पिछले कुछ वर्षों में, खासकर भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की केंद्र सरकार के शासनकाल में, यह सवाल उठने लगा है कि क्या सरकार से सवाल पूछना अब एक अपराध बन गया है? जब कोई पत्रकार, सामाजिक कार्यकर्ता, या विपक्षी नेता सरकार की नीतियों पर उंगली उठाता है, तो उसे आयकर विभाग (इनकम टैक्स) और प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) जैसे सरकारी हथियारों का डर दिखाया जाता है। यह प्रवृत्ति न केवल लोकतांत्रिक मूल्यों को कमज़ोर करती है, बल्कि यह सवाल उठाती है कि क्या भारत का लोकतंत्र अब एक दिखावटी तमाशा बनकर रह गया है?
सरकारी एजेंसियों का दुरुपयोग: डर का हथियार
पिछले एक दशक में ऐसे कई उदाहरण सामने आए हैं, जहाँ सरकार के आलोचकों को निशाना बनाया गया। चाहे वह स्वतंत्र पत्रकार हों, गैर-सरकारी संगठन (NGOs) हों, या विपक्षी दल, इनकम टैक्स और ईडी की छापेमारी का डर एक हथियार की तरह इस्तेमाल हो रहा है। उदाहरण के लिए, कुछ मीडिया हाउस और सामाजिक संगठनों पर छापे मारे गए, जिनका समय और तरीक़ा संदेहास्पद रहा। सरकार इसे भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ कार्रवाई बताती है, लेकिन सवाल यह है कि क्या ये कार्रवाइयाँ चुनिंदा हैं? क्या यह संदेश देने की कोशिश है कि जो सरकार के ख़िलाफ़ बोलेगा, उसे सबक सिखाया जाएगा? यह लोकतंत्र नहीं, बल्कि तानाशाही की छाया है।
मीडिया की गुलामी: चौथा खंभा या सरकार का ढोल?
पहले के दौर में, मीडिया सरकार की गलतियों को बेनकाब करने का साहस रखता था। समाचार पत्रों में छपने वाली ख़बरें नेताओं को जवाबदेही के लिए मजबूर करती थीं। लेकिन आज का मुख्यधारा का मीडिया सरकार का भोंपू बन चुका है। दिन-रात प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा की उपलब्धियों का गुणगान करने में व्यस्त यह मीडिया महंगाई, बेरोज़गारी, और आर्थिक बदहाली जैसे ज्वलंत मुद्दों पर चुप्पी साध लेता है। इसके बजाय, विपक्ष को गुनहगार ठहराने और 70 साल पुरानी नेहरू सरकार की गलतियों को बार-बार उछालने में सारी ऊर्जा खर्च की जाती है। क्या यह पत्रकारिता है, या सत्ता का प्रचार-तंत्र?
नेहरू का भूत और जवाबदेही का अभाव
जब भी विपक्ष भाजपा से सवाल पूछता है—चाहे वह महंगाई पर हो, बेरोज़गारी पर हो, या किसानों की बदहाली पर—भाजपा का जवाब एक ही होता है: “नेहरू ने क्या किया?” यह रणनीति हास्यास्पद होने के साथ-साथ ख़तरनाक भी है। मान लिया कि नेहरू या पूर्ववर्ती सरकारों ने गलतियाँ कीं, लेकिन क्या मौजूदा सरकार का काम सिर्फ़ पुरानी गलतियों को गिनवाना है? क्या यह जवाबदेही का परिचय है कि दस साल सत्ता में रहने के बाद भी सरकार कहे कि सारी समस्याएँ 70 साल पहले की हैं? जनता को यह जानने का हक़ है कि उनकी चुनी हुई सरकार आज की समस्याओं के लिए क्या कर रही है। लेकिन इसके बजाय, भाजपा जनता के सवालों को धार्मिक ध्रुवीकरण और हिंदू-मुस्लिम विवाद में उलझाकर दबाने की कोशिश करती है।
विकास का वादा: खोखला नारा या भ्रमजाल?
2014 में भाजपा “विकास” और “अच्छे दिन” का नारा लेकर सत्ता में आई थी। रोज़गार, बुनियादी ढांचा, और आर्थिक सुधार के बड़े-बड़े वादे किए गए। लेकिन एक दशक बाद, क्या दिखता है? महंगाई आसमान छू रही है, बेरोज़गारी रिकॉर्ड स्तर पर है, और आर्थिक असमानता बढ़ रही है। जब विकास के मोर्चे पर सवाल उठते हैं, तो भाजपा धार्मिक मुद्दों को हवा देती है। हिंदू-मुस्लिम विवाद, मंदिर-मस्जिद की बहस, और सांप्रदायिक ध्रुवीकरण अब भाजपा के चुनावी एजेंडे का केंद्र बन चुके हैं। विकास का कोई ठोस रोडमैप नज़र नहीं आता। फिर भी, हैरानी की बात है कि इतने वर्षों तक ठोस प्रगति न दिखाने के बावजूद, भाजपा कई जगहों पर चुनाव जीत जाती है। क्या यह जनता का भ्रम है, या सत्ता का प्रचार-तंत्र इतना मज़बूत हो चुका है कि सच को दबा देता है?
लोकतंत्र का भविष्य दाँव पर
लोकतंत्र में सरकार से सवाल पूछना कोई गुनाह नहीं, बल्कि जनता का सबसे बड़ा हथियार है। लेकिन जब सवाल पूछने वालों को डराया जाता है, मीडिया सत्ता का गुणगान करने लगता है, और विकास के वादे धार्मिक उन्माद में दब जाते हैं, तो यह लोकतंत्र के लिए गंभीर ख़तरा है। भाजपा को यह समझना होगा कि सत्ता की असली ताक़त जनता के भरोसे में है, और वह भरोसा तभी कायम रहेगा जब सरकार सवालों का जवाब देगी, न कि उन्हें कुचलने की कोशिश करेगी। जनता को भी जागरूक होकर यह सुनिश्चित करना होगा कि उनकी आवाज़ दबाई न जाए। अगर सवाल पूछना गुनाह बन गया, तो फिर लोकतंत्र सिर्फ़ एक खोखला शब्द बनकर रह जाएगा।
- नोट: यह लेख संसद वाणी के स्वामी व प्रकाशक अभिषेक अनिल वशिष्ठ की है।