Ex SC Judge on New Criminal Laws: सुप्रीम कोर्ट के रिटायर्ड जस्टिस जस्ती चेलमेश्वर ने नए आपराधिक कानूनों पर नजर डाली और बताया कि क्या वे पुराने कानूनों से बिल्कुल अलग हैं या नहीं. सरकार ने 11 अगस्त 2023 को भारतीय दंड संहिता, साक्ष्य अधिनियम 1872 और सीआरपीसी 1973 की जगह लेने के लिए लोकसभा में तीन नए विधेयक पेश किए.
Ex SC Judge on New Criminal Laws: भारत में 1 जुलाई 2024 से लागू हुए तीन नए आपराधिक कानूनों को लेकर पूर्व सुप्रीम कोर्ट के न्यायमूर्ति जस्टिस चेलमेश्वर ने सवाल खड़े किए हैं. उनका मानना है कि ये कानून ‘नई बोतल में पुरानी शराब की तरह है’. जून 2018 में रिटायर्ड हुए जस्टिस चेलमेश्वर उस समय भारत के दूसरे सबसे वरिष्ठ न्यायाधीश थे.
उन्होंने कहा, ‘नए कानून में सिर्फ नाम बदल दिए गए हैं, लेकिन मूल रूप से ये बदलाव दिखावे के लिए हैं. यह सिर्फ आंखों में धूल झोंकने जैसा है.’
पूर्व जस्टिस ने नए कानून पर उठाए सवाल
बता दें, इन तीन नए कानूनों को भारतीय दंड संहिता (IPC), भारतीय साक्ष्य अधिनियम 1872 और दंड प्रक्रिया संहिता 1973 के स्थान पर लागू किया गया है. ये तीनों कानून भारत की दंड प्रणाली का आधार हैं.
सरकार का लक्ष्य इन नए कानूनों के जरिए प्रक्रियाओं को सरल बनाना, कानूनों को वर्तमान परिस्थिति के अनुकूल बनाना, त्वरित न्याय प्रदान करना और कानूनों को औपनिवेशिक मानसिकता से बाहर निकालना है. गौरतलब है कि अंग्रेजों के शासनकाल में दंड देना ही कानून का मुख्य उद्देश्य था, न कि न्याय प्रदान करना. लेकिन सवाल यह है कि क्या ये नए कानून अपने वादे को पूरा कर पाएंगे?
वादों पर कितना खरा उतरेंगे नए कानून
जस्टिस चेलमेश्वर ने कहा, ‘मुझे इसमें बहुत संदेह है. हालांकि मैं अभी भी इन कानूनों का बारीकी से अध्ययन कर रहा हूं, लेकिन पहली नज़र में देखने पर ऐसा लगता है कि कुछ बदलाव और जोड़ अतिरिक्त हैं. भारतीय साक्ष्य अधिनियम में किए गए बदलावों के तहत, जिसे अब भारतीय साक्ष्य अधिनियम (BSA) के नाम से जाना जाता है, अदालतों को सुनवाई में अनावश्यक देरी से बचने के लिए अधिकतम दो बार स्थगन देने की अनुमति है. मुकदमे की सुनवाई खत्म होने के 45 दिनों के अंदर फौजदारी मामलों में फैसला सुनाना होगा. पहले सुनवाई के 60 दिनों के अंदर आरोप तय किए जाने चाहिए. लेकिन अदालतें इतनी सख्त समयसीमा को कैसे पूरा करेंगी? क्या हमारे पास इसके लिए पर्याप्त संसाधन हैं?’
हर कोई जानता है कि सिस्टम कितना तेज है
जस्टिस चेलमेश्वर का कहना है कि हर कोई सिस्टम की कार्यकुशलता से वाकिफ है. फैसला सिर्फ जजों के हाथ में नहीं होता. समयसीमा को पूरा करने के लिए आपको अत्यधिक कुशल और प्रशिक्षित कर्मचारियों की आवश्यकता होती है. क्या हमारे पास वो हैं?’
उनके अनुसार नए कानूनों का लक्ष्य, यानी जल्द से जल्द फैसला सुनाने का सपना निकट भविष्य में हकीकत बन पाएगा, इसको लेकर बहुत संदेह है. 1 जुलाई 2024 से पहले किए गए अपराधों के लिए पुराना भारतीय दंड संहिता और दंड प्रक्रिया संहिता और भारतीय साक्ष्य अधिनियम लागू होंगे और ऐसे मामलों में मुकदमे उसी तरह से चलते रहेंगे. 1 जुलाई 2024 से किए गए अपराधों के लिए ये तीन नए कानून लागू होंगे.
80 प्रतिशत कोर्ट में नहीं है बुनियादी डिजिटल सिस्टम
एक गंभीर चिंता यह है कि भारत की 80 प्रतिशत से अधिक अदालतों में बुनियादी डिजिटल इंफ्रास्ट्राक्चर की सुविधा की कमी है, जो नए कानूनों को लागू करने के लिए एक बड़ी चुनौती है. जस्टिस चेलमेश्वर के हिसाब से, जमानत प्रावधान और भी कड़े और मुश्किल हो जाएंगे. गंभीर अपराधों के लिए पुलिस हिरासत में अधिकतम नजरबंदी की अवधि 15 दिनों से बढ़ाकर 90 दिन कर दी गई है. यह दंड प्रक्रिया संहिता की 15 दिन की सीमा से एक महत्वपूर्ण बदलाव है.
इस बदलाव ने पुलिस द्वारा संभावित ज्यादतियों को लेकर चिंता बढ़ा दी है’ सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज ने देश में लोक अभियोजन की व्यवस्था पर भी सवाल उठाए, जो कि देश की न्यायिक प्रणाली को सुचारू रूप से चलाने के लिए प्राइमरी जरूरत है.’
नए कानून में बरकरार है ये कमियां
जस्टिस चेलमेश्वर का कहना है, “हर कोई जानता है कि लोक अभियोजकों (Public Prosecutors) की नियुक्ति कैसे की जाती है’ समय के साथ, पूरे देश में लोक अभियोजकों के चयन और नियुक्ति प्रक्रिया में बहुत सारे गैर-जरूरी और अनुचित विचार शामिल हो गए हैं’ अगर किसी मामले में आरोप कानून के आदेश के अनुसार नहीं लगाए जाते हैं, तो इसका दोष बार और बेंच दोनों को लेना चाहिए’ इन कमियों को दूर नहीं किया गया है'”
नेशनल ज्यूडिशियल डेटा ग्रिड के अनुसार, भारत की दंड प्रणाली में लगभग 3.4 करोड़ मामले लंबित हैं, जो पहले से ही मौजूदा ढांचे पर बोझ हैं.’
जज किए गए तैयार पर वकीलों को नहीं मिली ट्रेनिंग
कई अलग-अलग अदालतों के न्यायाधीशों और पुलिस बलों को जरूरी और ग्रुप ट्रेनिंग सेशन प्रदान किए गए हैं’ हालांकि, वकीलों के लिए अभी तक इस तरह का कोई अनिवार्य प्रशिक्षण कार्यक्रम नहीं चलाया गया है, जो अंततः अपने मुवक्किलों के मामलों की पैरवी करने वाले हैं’
कुल मिलाकर, यह कहना मुश्किल है कि नए कानून कितना बड़ा बदलाव ला पाएंगे’ हालांकि मंशा अच्छी है, लेकिन जमीनी हकीकत और मौजूदा ढांचे की कमियों को ध्यान में रखते हुए इन कानूनों के प्रभावी कार्यान्वयन को लेकर संदेह बना हुआ है’